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Acharyas And Sampradayas Of Dharma
#9
A life sketch of Sri Ramanand.

He was born in year 1299, on Magh Saptami of Krishna Paksha at Prayag in the home of mother Sushila Devi and father Punyasadan. His Guru was Sri Raghavanand of Sri Ramanuj Acharya's stream.

Ramanamd was a reformer, and affected many changes in the tradition of Ramanuj Acharya. This included amongst other things, relaxation of varna norms, introducing the vernacular doctrines. 7 books are attributed to him, 2 in Sanskrit (vaisnava-matAbja, srirAmArchana paddyati) and 5 in old-Hindi (rAma-rakshA-stotra, siddhAnta-paTala, gyAna-lIlA, gyAna-tilaka, yoga-chintA-maNi). He eventually created a large following, which included masters like Kabir, Ravidas, Dhanna etc, and really started a Bhakti-reform in the North India.

While the sampradaya of Ramanand came to be known as 'RamavatI', that of earler traditional followers in the line of Sri Ramanuj started being known as 'AchArI'. Ramavati-s also started having different type of tilaka, tripunda etc, known as rakta-sri.

He died in Ayodhya at a ripe age of 111 years. Traditions about his dead body etc are shrouded in mystery, like many other teachers.

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<span style='color:red'>राम के अनन्य भक्त</span>
डा. वंशीधर त्रिपाठी

स्वामी रामानन्द का जन्म 1299 ई. में माघकृष्ण सप्तमी को प्रयाग में हुआ था। इनके पिता का नाम पुण्यसदन और माता का नाम सुशीला देवी था। इनका बाल्यकाल प्रयाग में बीता। यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त वे प्रयाग से काशी चले आए और गंगा के किनारे पंचगंगा घाट पर स्थायी रूप से निवास करने लगे। इनके गुरु स्वामी राघवानन्द थे जो रामानुज संप्रदाय के ख्यातिलब्ध संत थे। स्वामी राघवानन्द हिन्दी भाषा में भक्तिपरक काव्य रचना करते थे। स्वामी रामानन्द को रामभक्ति गुरुपरंपरा से मिली। हिन्दी भाषा में लेखन की प्रेरणा उन्हे गुरुकृपा से प्राप्त हुई। पंचगंगाघाट पर रहते हुए स्वामी रामानुज ने रामभक्ति की साधना के साथ-साथ उसका प्रचार और प्रसार भी किया।

स्वामी रामानन्द ने जिस भक्ति-धारा का प्रवर्तन किया, वह रामानुजी परंपरा से कई दृष्टियों से भिन्न थी। रामानुजी संप्रदाय में इष्टदेव के रूप में लक्ष्मीनारायण की पूजा होती है। स्वामी रामानन्द ने लक्ष्मीनारायण के स्थान पर सीता और राम को इष्टदेव के आसन पर प्रतिष्ठित किया। नए इष्टदेव के साथ ही स्वामी रामानन्द ने रामानुजी संप्रदाय से अलग एक षडक्षर मंत्र की रचना की। यह मंत्र है- रां रामाय नम:। इष्टदेव और षडक्षर मंत्र के अतिरिक्त स्वामी रामानन्द ने इष्टोपासनापद्धति में भी परिवर्तन किया। स्वामी रामानन्द ने रामानुजी तिलक से भिन्न नए ऊ‌र्ध्वपुण्ड तिलक की अभिरचना की। इन भिन्नताओं के कारण स्वामी रामानन्द द्वारा प्रवर्तित भक्तिधारा को रामानुजी संप्रदाय से भिन्न मान्यता मिलने लगी। रामानुजी और रामानन्दी संप्रदाय क्रमश: अचारी और रामावत नाम से जाने जाने लगे। रामानुजी तिलक की भांति रामानन्दी तिलक भी ललाट के अतिरिक्त देह के ग्यारह अन्य भागों पर लगाया जाता है। स्वामी रामानन्द ने जिस तिलक की अभिरचना की उसे रक्तश्री कहा जाता है। कालचक्र में रक्तश्री के अतिरिक्त इस संप्रदाय में तीन और तिलकों की अभिरचना हुई। इन तिलकों के नाम है, श्वेतश्री , गोलश्री (बेदीवाले) और लुप्तश्री (चतुर्भुजी)।

इष्टदेव, मंत्र, पूजापद्धति एवं तिलक इन चारों विंदुओं के अतिरिक्त स्वामी रामानन्द ने स्वप्रवर्तित रामावत संप्रदाय में एक और नया त8व जोड़ा। उन्होंने रामभक्ति के भवन का द्वार मानव मात्र के लिए खोल दिया। जिस किसी भी व्यक्ति की निष्ठा राम में हो, वह रामभक्त है, चाहे वह द्विज हो अथवा शूद्र, हिन्दू हो अथवा हिन्दूतर। वैष्णव भक्ति भवन के उन्मुक्त द्वार से रामावत संप्रदाय में बहुत से द्विजेतर और हिन्दूतर भक्तों का प्रवेश हुआ। स्वामी रामानन्द की मान्यता थी कि रामभक्ति पर मानवमात्र का अधिकार है, क्योंकि भगवान् किसी एक के नहीं, सबके हैं- सर्वे प्रपत्तिरधिकारिणो मता:। ज्ञातव्य है कि रामानुजी संप्रदाय में मात्र द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) को ही भगवद्भक्ति का अधिकार प्राप्त है। स्वामी रामानन्द ने रामभक्ति पर मानवमात्र का अधिकार मानकर एक बड़ा साहसी और क्रान्तिकारी कार्य किया था। इसके लिए उनका बड़ा विरोध भी हुआ। स्वामी रामानन्द का व्यक्तित्व क्रान्तिदर्शी, क्रान्तिधर्मी और क्रान्तिकर्मी था। उनकी क्रान्तिप्रियता मात्र रामभक्ति तक ही सीमित नहीं थी।

भाषा के क्षेत्र में भी उन्होंने क्रान्ति का बीजारोपण किया। अभी तक धर्माचार्य लेखन-भाषण सारा कुछ देवभाषा संस्कृत में ही करते थे। मातृभाषा होते हुए भी हिन्दी उपेक्षत-सी थी। ऐसे परिवेश में स्वामी रामानन्द ने हिन्दी को मान्यता देकर अपनी क्रान्तिप्रियता का परिचय दिया। आगे चलकर गोस्वामी तुलसीदास ने स्वामी रामानन्द की भाषा विषयक इसी क्रान्ति प्रियता का अनुसरण करके रामचरितमानस जैसे अद्भुत ग्रंथ का प्रणयन हिंदी भाषा में किया। ऐसा माना जाता है कि स्वामी रामानन्द विभिन्न परिवेशों के बीच एक सेतु की भूमिका का निर्वाह करते थे। वे नर और नारायण के बीच एक सेतु थे; शूद्र और ब्राह्मण के बीच एक सेतु थे; हिन्दू और हिन्दूतर के बीच एक सेतु थे; देवभाषा (संस्कृत) और लोकभाषा (हिन्दी) के बीच एक सेतु थे। स्वामी रामानन्द ने कुल सात ग्रंथों की रचना की, दो संस्कृत में और पांच हिन्दी में। उनके द्वारा रचित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है:

(1) वैष्णवमताब्ज भास्कर: (संस्कृत),
(2) श्रीरामार्चनपद्धति: (संस्कृत),
(3) रामरक्षास्तोत्र (हिन्दी),
(4) सिद्धान्तपटल (हिन्दी),
(5) ज्ञानलीला (हिन्दी),
(6) ज्ञानतिलक (हिन्दी),
(7) योगचिन्तामणि (हिन्दी)

ऐसा माना जाता है कि लगभग एक सौ ग्यारह वर्ष की दीर्घायु में स्वामी रामानन्द ने भगवत्सायुज्यवरण किया। जीवन के अंतिम दिनों में वे काशी से अयोध्या चले गए। वहां वे एक गुफा में प्रवास करने लगे। एक दिन प्रात:काल गुफा से शंख ध्वनि सुनाई पड़ी। भक्तों ने गुफा में प्रवेश किया। वहां न स्वामी जी का देहशेष और न शंख।

वहां मात्र पूजासामग्री और उनकी चरणपादुका। भक्तगण गुफा से चरणपादुका काशी ले आए और यहां उसे पंचगंगाघाट पर स्थापित कर दिया। जिस स्थान पर चरणपादुका की स्थापना हुई, उसे श्रीमठ कहा जाता है। श्रीमठ पर एक नए भवन का निर्माण सन् 1983 ई. में किया गया।
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Acharyas And Sampradayas Of Dharma - by Guest - 06-10-2007, 07:09 AM
Acharyas And Sampradayas Of Dharma - by Guest - 06-11-2007, 12:15 AM
Acharyas And Sampradayas Of Dharma - by Guest - 06-11-2007, 11:54 AM
Acharyas And Sampradayas Of Dharma - by Guest - 06-13-2007, 05:31 PM
Acharyas And Sampradayas Of Dharma - by Guest - 11-04-2007, 05:14 AM
Acharyas And Sampradayas Of Dharma - by Guest - 11-26-2007, 06:18 PM
Acharyas And Sampradayas Of Dharma - by Guest - 12-13-2007, 01:13 PM
Acharyas And Sampradayas Of Dharma - by Guest - 01-12-2008, 04:34 PM
Acharyas And Sampradayas Of Dharma - by Bodhi - 01-29-2008, 09:59 AM

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