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Vegetarian Discussion

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Vegetarian Discussion
#49
In this article, Mr O P Gupta, Indian ambassador to Finland, takes on the myths created by western scholars like D N Jha etc about Vedas sanctioning beef-eating. (Jha's article 'Paradox of the Indian Cow' appeared in Hindustan times as a series of articles. Gupta's response appeared in Jagran.)

Beef eating : myths about references to Veda and medical science
By Sri O P Gupta
Indian ambassador to Finland

गो मांस: वेद, चिकित्सा विज्ञान और भ्रांतियां
ओ.पी. गुप्ता, फिनलैड मे भारत के राजदूत

भारत के संविधान का अनुच्छेद 48 राज्यों को गो वंश की बेहतरी और उसके संरक्षण के लिए उचित कदम उठाने का निर्देश देता है। 1958 मे सर्वोच्च न्ययालय के पांच सदस्यीय बोर्ड ने इस अनुच्छेद की संवैधानिक वैधता को मान्यता प्रदान की जिसका अनुसरण करते हुए काग्रेस के नेतृत्व मे लगभग 18 राज्य सरकारो ने अपने-अपने राज्य मे इससे संबंधित कानून भी पास किया।

जब मै 1971 मे भारतीय विदेश सेवा के लिए चुना गया तो मेरे पिताजी ने मुझसे यह प्रतिज्ञा करवाई कि मै गो मांस नही ग्रहण करूंगा क्योकि यह हिंदू धर्म के विरुद्ध है और इसे वेद द्वारा निषिद्ध किया गया है। हालांकि उन्होने मुझे अन्य मासांहार से नही रोका। आज इस मुद्दे के विवादास्पद होने के साथ ही आधुनिक चिकित्सा शास्त्र ने भी यह माना है कि गो मांस खाने से कई गंभीर संक्रामक, (एक से दूसरे व्यक्ति तक फैलने वाली) वंशानुगत (एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फैलने वाली) और ला-ईलाज बीमारियां मसलन एड्स होने की संभावना रहती है। इस तरह गो मांस इतना घातक है कि इससे वंश का नाश भी हो सकता है। अमूमन अधिकतर राजदूत जो हमे रात्रीभोज पर आमंत्रित करते थे, इस बात का पूरा ख्याल रखते थे कि हमे गो मांस न परोसा जाए, क्योकि उन्हे मालूम था कि हिंदुओ के लिए यह निषिद्ध है। हेलसिंकी मे जब मै स्विस राजनयिक के घर गया तो उन्होने इस बात का ध्यान रखते हुए हमारे लिये खाने पर मछली की व्यवस्था की थी। जिस तरह हिंदू गो मांस नही खाते है वैसे ही मुसलमान सुअर। ऐसे ही जीव केवल कोसर और मुसमान हलाल मांस ही खाया करते है। इस पृष्ठभूमि मे जब मै दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डी. एन. झा का गो मांस भक्षण के समर्थन मे हिंदुस्तान टाइम्स मे 17 और 18 दिसंबर 2001 को छपे लेख तथा अल्लाहुअकबर. नेट के लेखो को जिसमे गो हत्या के समर्थन मे वैदिक ऋचाओ का हवाला दिया गया था, को पढ़ा तो बहुत आश्चर्य हुआ।

इस विषय के संबंध मे दो चीज को कभी नही भूलना चाहिए कि- सभी हिंदू धर्मशास्त्रो मे वेदो की स्थिति सर्वोच्च की है, तथा वेदो मे गाय के लिए अघन्या शब्द का बार-बार प्रयोग किया गया है। वेद के VI.43 वें निरुक्तक मे अघन्या शब्द की व्याख्या करते हुए ऐसी प्राणी जिसकी हत्या न की जाए बताया गया है। कम से कम ऐसी 16 ऋचाएं है जिसमे गाय के लिए अघन्या शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद की आठ ऋचाएं गौ की आराधना मे लिखा गया है, जबकि अथर्ववेद की 24 ऋचाओ मे बैल (ऋषभ) को देवता मान कर उसकी प्रार्थना की गयी है।

ऋग्वेद की (viii.101.15 वी)ऋचा मे साफ तौर पर गो वध से मनाही की गई है। एच.एच.विल्सन ने इसका अनुवाद करते हुए लिखा है- वह(गाय)रुद्र की मां,वसुओ की पुत्री और अमृत का वासस्थान है। अन्य चार ऋचाओ मे भी गाय को नही मारने, तथा हानि नही पहुंचाने का निर्देश दिया गया है। इसके साथ ही इसकी कम से कम सात ऋचाओ मे अगिन् से प्रार्थना किया गया है कि वह मांसभक्षी रक्षसो को जिंदा जलाए या उसकी हत्या कर दे। ऋग्वेद की X.87.1 और X.87.19 ऋचाओ के निहितार्थ भी कुछ ऐसे ही है। इस तरह यह स्पष्ट होता है कि वेदो मे न केवल गोवध से मनाही की गई है, बल्कि गो हत्या करने वालो को दंडित करने का प्रावधान भी किया गया है। \क्त्र\स्

वैदिक ऋचाओ मे कुछ शब्दो के प्रतिकात्मक प्रयोग हुआ है, जिसका गो वध का समर्थन करने वाले लोग गलत माने निकाल कर अर्थ का अनर्थ कर दिया करते है। जैसे हम अक्सर स्त्री की सुंदरता का वर्णन करने के लिए चंद्रमुखी और मृगनयनी शब्दो का प्रयोग करते है। लेकिन यहां इन शब्दो का प्रयोग प्रतिकात्मक होता है। इसका मतलब यह नही होता कि उस स्त्री का चेहरा चांद से मिट्टी ला कर बनाया गया है। ठीक इसी तरह जब हम किसी के बारे मे कहते है कि उसका सांड जैसा शरीर है,तो इसका कतई यह मतलब नही होता कि उस व्यक्ति ने सांड का मांस ऐसा बनने के लिए खाया है। अंग्रेजी मे बुल लाइक ग्रेन जैसी लोकोक्तियो का चलन है इसका मतलब यह नही निकाला जा सकता है कि सांड को अन्न के साथ खाया जाएगा बल्कि यहां इसका मतलब अनाज के पुष्ट दानो से है। ऋग्वेद मे ऐसे प्रतिकात्मक शब्दो की प्रचुरता है, जिससे अर्थ का अनर्थ निकालने वालो को सुविधा होती है। उदाहरण के लिए पेश है कुछ बानगी- अथर्ववेद की IX.4.4 वी ऋचा मे लिखा है कि बछड़ा, ताजा दूध, दही और घी ये सब सांड के बीज है। IX4.1 वी ऋचा मे कहा गया है कि सांड के बिना दूध की कल्पना असंभव है। IX4.7 वी ऋचा मे कहा गया है कि घी सांड का बीज/चर्बी है। इन बेतुकी (प्रतिकात्मक)बातो का निहितार्थ यह है कि सांड के शुक्राणु से ही गाय प्रजनन के बाद बछड़ा, दूध,घी और दही देने लायक हो पाती है। इतना ही नही अथर्ववेद मे तो यज्ञ मे प्रयुक्त लकडि़यो का नाम पशुओ से मिलता है। लेकिन इसके आधर पर हम इस निष्कर्ष पर नही पहुंच सकते कि इन पशुओ की यज्ञ मे आहुति दी जाती थी तथा यज्ञ के बाद उसका भक्षण किया जाता था।

सुधी पाठको को याद हो कि कारतूस मे चिकनाई के लिए गाय और सुअर की चर्बी प्रयुक्त होने की खबर ने ही ब्रिटिश कंपनी सरकार के खिलाफ भारत मे 1857 मे विद्रोह करा दिया था। इसके बाद से अंग्रेजो ने वैदिक ऋचाओ का हवाला दे कर गाय की पवित्रता खत्म करने और हिंदुओं द्वारा गो मांस खाने की भ्रांति फैलाने की साजिश रचे जाने लगी। इसभ्रांति को वैदिक ऋचाओ द्वारा सही प्रमाणित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने युरोपियन और भारतीय विद्वानो को बजाप्ता नौकरी पर रखा हुआ था। कोलकाता संस्कृत कॉलेज के व्याकरण के व्याख्याता पं. तारानाथ ने कई खंडो मे प्रकाशित अपने शब्दकोश वाचस्पत्यम मे इसी विचारधारा पर काम करते हुए लिखा है- \क्चगोघन्। गां हन्ति हन्। गोहन्तरि। \क्चअर्थात तारानाथ के अनुसार गोघन् का मतलब गाय की हत्या करने वाला निकलता है। मालूम हो कि वाचस्पत्यम छह खंडो का शब्दकोश है जिसे संस्कृत के विद्वानो द्वारा आज भी उपयोग मे लाया जाता है। जबकि एच.एच. स्वामी प्रकाशानंद सरस्वति ने अपनी पुस्तक द टू्रू हिस्ट्री ऑफ रिलीजन ऑफ इंडिया की पृष्ट सं 274 मे गोघन्(गो हन)शब्द का मतलब लिखा है-ऐसे अतिथि जो उपहार के रूप मे गाय स्वीकार करते है। इससे संबंधित महर्षि पाणिनी का एक सूत्र भी है- \क्चदाशगोघनै सम्प्रदाने यहां सम्प्रदान मे दस गाय लेने वालो की चर्चा हो रही है।

इस तरह से महर्षि पाणिनी ने गोघन्(गोहन) शब्द का मानक अर्थ गाय को प्राप्त करने वाला प्रतिपादित किया। अब प्रश्रन् यह उठता है कि पाणिनी जैसे वैयाकरण के विचार से पं.तारानाथ का इत्तेफाक न रखने के पीछे क्या करण था। जाहिर है ऐसा करने के लिए पं. तारानाथ को धन की लालच दी गई हो। और ऐसा था भी स्वामी सरस्वति के अनुसार ब्रिटिश सरकार ने इस शब्दकोश को लिखने के लिए 50 रुपये प्रति कॉपी के हिसाब से 200 प्रतियां खरीदने का लिखित अग्रिम आश्वासन पं. तारानाथ को 26 जनवरी 1866 मे फोर्ट विलियम से पत्रक संख्या 507 जारी किया गया था। इस तरह से भ्रामक व्याख्याओ से युक्त शब्दकोश को पूरा करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने प. तारानाथ को तब रु. 10,000 देने का वादा किया जिसका मुल्यांकन आज के हिसाब से 20 लाख रुपये होता है। यानी साफ शब्दो मे कहा जाए तो मामला यह है कि आज के हिसाब से बीस लाख रुपये ब्रिटिश कंपनी से लेकर पं. तारानाथ ने वैदिक शब्दो की व्याख्या इस तरह से की जिससे हिंदुओ का गाय के प्रति बना सदियो का विश्वास और आस्था खत्म हो जाए, और अंग्रेजो ने ऐसा इसलिए करवाया ताकि दोबारा ऐसे मुद्दो पर अंग्रेज सरकार को 1857 जैसे विद्रोह का सामना न करना पड़े।

ब्रिटिश सरकार वेदो के अनुवाद पर कितनी राशि खर्च कर रही थी इसका अंदाजा इसी से लगया जा सकता है कि 1853 मे ब्रिटेन मे शिक्षकों व शिक्षिकाओ का वार्षिक वेतन क्रमश: 90 और 70 पौड था, उससे भी पहले 1847 मे ईस्ट इंडिया कंपनी ने मैक्समूलर को 200 पौड वार्षिक वेतन पर वेदो के अनुवाद के लिए नौकरी पर रखा हुआ था। दरअसल वैदिक साहित्य के साथ छेड़-छाड़, और तोड़-मरोड़ कर अपने हित मे पेश करना ही अंग्रेजो का उद्देश्य था लेकिन इस दरम्यान भारतीयो के हित मे एक अच्छी बात यह हो गई कि अलग-अलग जगहो मे बिखरा तथा लुप्तप्रय हो रहे वेदो का संकलन एक जगह हो गया। इतना ही नही युरोपियन विद्वानो ने अपनी क्षमता के अनुसार वेदो का अनुवाद अपनी भाषा मे भी किया। हालांकि अनुवाद के साथ कुछ मौलिक समस्याएं होती है, जैसे-1. एक भाषा के कुछ शब्दो का मुकम्मल अर्थ दूसरी भाषा मे नही मिल पाता है।

2. खास कर वेद जैसी सनातन कृति का अनुवाद करने वाले से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इनकी तमाम पक्षो का गहराई से ज्ञान रखता हो।

अब हम फिर से डा. झा के पैराडॉक्स ऑफ द इंडियन काऊ नामक लेख पर आ जाएं जिसमे उन्होने आचार्य पाणिनी की व्याख्या को नकार कर पं. तारानाथ की व्याख्या को मानते हुए गोहन का मतलब ऐसा अतिथि जिसके आने पर गाय की हत्या होती है, माना है। वही तारानाथ जिसने ब्रिटिश कंपनी के लिए प्रायोजित शब्दकोश लिखा था। दूसरा कुतर्क उन्होने यह दिया है कि हिंदू यज्ञोपवित के समय भी गो चर्म धारण करते है इससे साबित होता है कि कभी न कभी ये गो मांस खाते भी होगे। यह तो एकदम सामान्य ज्ञान की बात है कि उपनयन संस्कार मे चर्म के प्रयोग के लिए तो कोई गाय की हत्या नही ही करेगा, इसके लिए मृत गाय का चर्म भी प्रयोग मे लाया जा सकता है। दूसरे, वेदों मे कही भी मृत गाय के चर्म के उपयोग से मनाही नही की गई है।

प्रो. झा आगे लिखते है कि वैदिक काल मे मृतक को सुरक्षित रखने के लिए गाय की चर्बी का उपयोग किया जाता था और यह ऋग्वेद मे लिखा है। लेकिन ऐसी बात ऋग्वेद की किस ऋचा मे कही गई है, इसका हिला उन्होने नही दिया है। यदि ऋग्वेद की \क्त्र3\स्.18.12 वी ऋचा उनकी स्मृति मे हो तो उसमे ऐसे काम के लिए घृत शब्द का प्रयोग किया गया है और प्रत्येक भारतीय वाकिफ है कि घृत गाय की चर्बी की मोटी परत को नही कहते है। गाय की चर्बी और घी दोनो अलग-अलग चीज है। पाठको की सुविधा के लिए यहां ऋग्वेद की X.18.12 वी ऋचा को उद्धृत किया जा रहा है-
उच्छ†माना पृथिवी सु तिष्ठतु सहस्त्रं मित उप ही श्रयंताम।
ते गृहासो घृतश्चुतो भवंतु विश्चहास्मै शरणा: सन्त्वत्र॥

हालांकि कुछ हिंदू ग्रंथो, खास कर चिकित्सा से संबंधित पुस्तको मे गो मांस के चिकित्सीय प्रयोग का उल्लेख है। सुश्रुत और वाग्भट्ट रचित चरक संहिता मे गो मांस का कुछ बीमारियो की दवा के रूप मे उपयोग का उल्लेख है, लेकिन इसके बिना पर यह निर्णय करना कि उस समय के लोग इसका सेवन करते थे, या समाज मे गो वध की अनुमति थी, गलत है। दवा के लिए प्रयोग के लायक मांस के लिए गाय की हत्या आवश्यक या तर्कसंगत नही लगता। ऐसे कुतर्को के आधार पर समाज मे क्या होता है और लोगो की खान-पान की आदतो के बारे मे निर्णय किया जाए तब तो यह भी कहा जा सकता है कि सभी हिंदू नियमित रूप से गो मूत्र का सेवन करते थे तथा अपने अतिथियो के आने पर उन्हे उत्तम पेय के तौर पर पिलाते भी थे क्योकि ग्रंथ मे बीमारियो की दवा के रूप मे इसके उपयोग का उल्लेख है। इसी तरह सांप के विष का प्रयोग सर्पदंश की दवा के रूप मे किये जाने का वर्णन भी शास्त्रो मे है। तो क्या इस आधार पर यह भी कहा जाने लगेगा कि हिंदू सांप के विष का सेवन करते थे तथा अपने अतिथियों को भी पिलाते थे?

कई बार गो हत्या को मुसलमसनो के साथ जोड़ कर देखा जाता है, और भ्रांति यह फैलाई जाती है कि धार्मिक कृत्य के तहत गायो को मारना उनके लिए अनिवार्य है, जबकि ऐसी कोई बात नही है। पहला मुगल शासक बाबर ने अपने पुत्र हुमायूं को गो हत्या न करने के संबंध मे पत्र लिखा था। अकबर के समय मे तो गो हत्या पूरी तरह से बंद थी तथा औरंगजेब तो पूरी तरह से शाकाहारी था। इतना ही नही अकबर और औरंगजेब दैनिक उपयोग मे तथा पेय जल के रूप मे गंगा जल ही पसंद करते थे।
1919 के अमृतसर अधिवेशन मे मुस्लिम लीग ने मुसलमानो को बकरीद के अवसर पर गाय को छोड़ कर अन्य पशुओ की कुर्बानी करने की अपील की थी। सबसे बड़ा तथ्य यह है कि जब अरब देशो मे जहां इस्लाम का जन्म हुआ गाय होती ही नही फिर धार्मिक बंदिश के तहत गाय की कुर्बानी को कैसे अनिवार्य बनाया जा सकता है? अब 3 फरवरी 2004 को इंडियन एक्सप्रेस मे छपी एक खबर पर नजर डालते है जिसमे दारुल ऊलूम वक्फ के मौलाना अंसार शाह कश्मीरी ने कहा है कि हम पोस्टर और अपील द्वारा लोगो को यह यह समझाने की कोशिश मे लगे है कि वे गाय की कुर्बानी करना छोड़ दे। 2 फरवरी 2004 को ही हिंदुस्तान टाइम्स मे दारुल ऊलूम के मुफ्ती हबीबुर्रहमान को कोट किया गया है- चूंकि हिंदू गाय की पूजा तथा आदर करते है, अत: मुसलमानो से अनुरोध है कि वे गाय के बदले अन्य चौपाये की कुर्बानी करे। जमायते-उलेमा हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने भी मुसलमानो से स्वेच्छा से गाय की कुर्बानी बंद करने की अपील की थी। उपर्युक्त उद्धरणो से यह स्पष्ट हो गया होगा कि गाय के प्रति मुसलिम भाइयो मे कुछ भ्रांतियां है जिसे समाप्त करने की कोशिश मुसलिम समाज के प्रतिनिधियो द्वारा अनवरत जारी है, और कोई बड़ी बात नही है कि कभी वह दिन भी आ जाए जब हमारे मुसलमान भाई गाय की कुर्बानी को हराम घोषित कर दे। लेकिन श्री झा जैसे प्राध्यापको के बारे मे क्या कहा जाए,जो अपने कुतर्को से यह प्रमाणित करने मे लगे है कि वेद मे गो हत्या की अनुमति है तथा वैदिक काल के हिदू गो मांस खाते थे।

यह सभी जानते है कि हिंदुओ का सर्वोच्च धर्मग्रंथ वेद है। ऐसा महाभारत, गीता, पुराण के संकलनकर्ता ने खुद महाभारत मे कहा है-
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